राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक दल नहीं है, बल्कि वह संपूर्ण समाज का संगठन है



 







राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ राजनीतिक दल नहीं है, बल्कि वह संपूर्ण समाज का संगठन है



[ मनमोहन वैद्य ]: राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के समय से ही स्वयं को संपूर्ण समाज का संगठन मानता और बताता रहा है। देश को मिली स्वतंत्रता के पश्चात भी संघ की इस भूमिका में कोई अंतर नहीं आया। इसलिए स्वतंत्रता के पश्चात 1949 में संघ का जो संविधान बना उसमें भी यह स्पष्ट है कि यदि कोई स्वयंसेवक राजनीति में सक्रिय होना चाहता है तो वह किसी भी राजनीतिक दल का सदस्य बन सकता है। यह संविधान भारतीय जनसंघ की स्थापना के पहले बना है। जनसंघ की स्थापना के बाद भी उसमें अनेक स्वयंसेवक और प्रचारकों को देने के बाद भी इसमें कोई बदल नहीं हुआ है।


लोकतांत्रिक व्यवस्था में एकाधिक दल का होना स्वाभाविक ही है। संघ के संपूर्ण समाज का संगठन होने के नाते यह भी स्वाभाविक ही है कि समाज का कोई भी क्षेत्र संघ से अछूता नहीं रहेगा और स्वयंसेवक समाज एवं जीवन के हर क्षेत्र में अपनी राष्ट्रीय दृष्टि लेकर जाएंगे। चूंकि कुछ स्वयंसेवक राजनीति में सक्रिय हैं इसलिए संघ राजनीति करता है या वह राजनीतिक दल है, यह कहना अनुचित और गलत होगा। राजनीतिक दल समाज के केवल एक हिस्से का प्रतिनिधित्व करते हैं और समाज का दूसरा हिस्सा भी होता है। संघ जब संपूर्ण समाज का संगठन है तो यह 'संपूर्ण' किसी एक 'हिस्से' का हिस्सा कैसे बन सकता है?


1925 में संघ की स्थापना के बाद 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में भाग लेते समय डॉ. हेडगेवार अन्य स्वयंसेवकों के साथ सत्याग्रह के लिए जाने से पहले सरसंघचालक का दायित्व अपने सहकारी डॉ. परांजपे को सौंप गए थे। वह व्यक्तिगत तौर पर सत्याग्रह में सहभागी हुए थे और उसके लिए उन्हें एक वर्ष सश्रम कारावास की सजा हुई। स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात गृह मंत्री सरदार पटेल द्वारा संघ को कांग्रेस में विलीन करने का प्रस्ताव आने पर गुरुजी ने उसे स्वीकार नहीं किया, क्योंकि संघ एक दल बनने के बजाय संपूर्ण समाज का संगठन करना चाहता था। राजनीति में एक राष्ट्रीय विचार के दल की आवश्यकता को ध्यान में रखकर संघ को यह रिक्तता पूरी करनी चाहिए, ऐसा डॉ. श्यामाप्रसाद मुखर्जी द्वारा प्रस्ताव आने पर गुरुजी ने कहा कि यह काम आप कीजिए। संघ आपकी सहायता करेगा, परंतु संघ संपूर्ण समाज के संगठन का अपना कार्य ही करता रहेगा।


आपातकाल के दौरान 1977 के लोकसभा चुनाव के समय जनता पार्टी की सरकार बनाने में संघ स्वयंसेवकों का महत्वपूर्ण योगदान था। कई दलों को लेकर बनी जनता पार्टी में अर्थात सत्ता में सहभागी होने का आकर्षक प्रस्ताव आने पर भी तत्कालीन सरसंघचालक बालासाहेब देवरस ने उसे अस्वीकार करते हुए यही कहा कि विशिष्ट परिस्थिति में संघ इस चुनाव में सहभागी हुआ था। अब संघ अपने नियत कार्य, संपूर्ण समाज के संगठन के कार्य में ही लगेगा। यह सब समझने के लिए समाज में संगठन नहीं, संपूर्ण समाज को संगठित करने के संघ के विचार के पीछे की भूमिका को समझना आवश्यक है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की 2018 की प्रतिनिधि सभा में ज्येष्ठ स्वयंसेवक एमजी वैद्य आए थे। उस दिन उनका 95वां जन्मदिन था। वह बाल्यावस्था से ही संघ के स्वयंसेवक बने हुए हैैं। प्रतिनिधि सभा में अपने विचार व्यक्त करते समय उन्होंने कहा, 'संघ को समझना आसान नहीं है। पश्चिम के द्वंद्वात्मक सोच से संघ को समझना संभव नहीं है। भारतीय सोच की एकात्म दृष्टि से ही आप संघ को समझ सकते हैैं।'


 


'ईशावास्य उपनिषद' के पांचवें मंत्र में आत्म तत्व का वर्णन करते समय उपनिषदकार कहते हैं, 'तदेजति तन्नैजति तद्दूरे तद्वन्तिके। तदंतरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यत:।' अर्थात 'वह आत्म तत्व चलता है और नहीं भी चलता है। वह दूर है और समीप भी है। वह सब के अंतर्गत है और वही सब के बाहर भी है।' यह बात परस्पर विरोधी लगने वाली है फिर भी सत्य है। कुछ ऐसी ही बात संघ पर भी लागू होती है। संघ संपूर्ण समाज का संगठन है। समाज में विभिन्न क्षेत्र हैैं। संघ इनमें से किसी एक क्षेत्र या अंग का संगठन नहीं है।


सामाजिक, सांस्कृतिक, शिक्षा, राजनीति, सेवा, धार्मिक आदि सभी क्षेत्रों में सक्रिय होते हुए भी संघ इनमें से केवल एक का संगठन नहीं है। संघ इससे ऊपर भी कुछ है। पुरुषसूक्त में कहा गया है कि 'वह पृथ्वी सहित संपूर्ण विश्व में व्याप्त होकर भी दस अंगुली शेष बचता है।' इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि वैज्ञानिकों ने एक समय यह कहा था कि अणु अविभाज्य है। फिर उन्होंने कहा कि अणु विभाज्य है और उसमें मुख्यत: तीन कण होते हैैं। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन और न्यूट्रान। फिर कहने लगे कि तीन ही नहीं और भी अनेक सूक्ष्म कण होते हैैं। फिर वे कहने लगे कि वे कण नहीं, वे तरंग के समान गुणधर्म दिखाते हैैं। आगे और खोज हुई तो कहने लगे कि वे दोनों हैं, कण भी और तरंग भी। वैज्ञानिक हाइजनबर्ग ने कहा कि यह अनिश्चित ही है कि वह कण है या तरंग? यही बात 'ईशावास्य उपनिषद' भी कहता है। इसे समझेंगे तो ही भारतीय चिंतन की एकात्म दृष्टि (द्वंद्वात्मक नहीं) को आप समझ सकेंगे। तो ही संघ के असली स्वरूप को आप समझ सकेंगे। एमजी वैद्य जी ने संघ की भूमिका को इसी तरह समझाया।


 


संपूर्ण समाज का संगठन होने के और राजनीतिक क्षेत्र समाज का एक अंग होने के नाते इस क्षेत्र में भी संघ स्वयंसेवक सक्रिय होंगे। चुनाव लोकतंत्र का उत्सव होने के कारण इसमें अधिकाधिक मतदान हो, वह स्थानीय मुद्दे या छोटे विषयों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय दृष्टिकोण पर हो और समुचित विचार कर राष्ट्र के हित में लोग मतदान करें, ऐसा जनजागरण भी स्वयंसेवक एक जागृत नागरिक होने के नाते करते हैैं।


संघ का संविधान किसी भी स्वयंसेवक को (संघ के पदाधिकारी नहीं) किसी राजनीतिक दल या उम्मीदवार का प्रचार करने से रोकता नहीं है, परंतु 90 प्रतिशत स्वयंसेवक किसी दल या उम्मीदवार के नाम का पर्चा न लेकर राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में ही जागरण करते दिखेंगे। ऐसा होते हुए भी संघ एक राजनीतिक दल या राजनीतिक दल का हिस्सा नहीं बनता है। वह संपूर्ण समाज का संगठन ही है। यही है भारत की सर्वसमावेशी, एकात्म, सर्वांगीण विचार का मार्ग। संघ को सही अर्थों में समझने के लिए इस दर्शन को समझना